सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि कई पक्षकार सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े हैं, उन्हें वकील की गलती के कारण कष्ट नहीं उठाना चाहिए

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आगरा /नई दिल्ली 07 फरवरी ।

सुप्रीम कोर्ट ने कुमारी साहू बनाम भुबनानंद साहू मामले में सुनवाई के दौरान कहा कि यद्यपि न्यायालयों को लंबी अवधि के विलंब को क्षमा करते समय सावधानी बरतनी चाहिए, लेकिन ऐसे मामलों में जहां विलंब वकील के कारण हो सकता है, न्याय के तराजू को संतुलित करना अनिवार्य हो जाता है। इसने इस बात पर प्रकाश डाला कि न्याय के लिए न्यायालयों का रुख करने वाले वादियों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

कोर्ट ने कहा,

“हम इस बात से अवगत हैं कि लंबी अवधि के विलंब को क्षमा करने से संबंधित मामलों में सावधानी बरतने की आवश्यकता है। हालांकि, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि ऐसे मामलों में न्याय के तराजू को संतुलित करना अनिवार्य हो जाता है, विशेष रूप से भारत की बड़ी संख्या की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि को देखते हुए जो वादी के रूप में न्याय के इन दरवाजों का रुख करते हैं।”

जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ ने हाईकोर्ट के समक्ष दूसरी अपील दायर करने में 225 दिनों की देरी को क्षमा करते हुए ये टिप्पणियां कीं।

वर्तमान अपीलकर्ता ने अन्य मामलों के अलावा सिविल मुकदमा दायर किया, जिसमें यह घोषित करने की मांग की गई थी कि वह (दिवंगत) राज किशोर साहू की कानूनी रूप से विवाहित पत्नी है। मुकदमा खारिज होने के बाद उसने पहली अपील दायर की। चूंकि इसे भी खारिज कर दिया गया, इसलिए उसने दूसरी अपील में हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

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इसे दायर करने में देरी हुई थी, इसलिए उसने देरी की माफी के लिए आवेदन भी दायर किया था। आवेदन में उसने बताया कि उसके वकील की ओर से उसे देरी के बारे में सूचित करने में देरी हुई। इसलिए वह समय पर अपील नहीं कर सकती थी और उक्त देरी जानबूझकर नहीं की गई थी। हालांकि, इस स्पष्टीकरण को संतोषजनक नहीं पाते हुए हाईकोर्ट ने देरी को माफ करने से इंकार कर दिया। इस पृष्ठभूमि के खिलाफ अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

न्यायालय ने उपर्युक्त टिप्पणियां कीं और रफीक और अन्य बनाम मुंशीलाल और अन्य, (1981) 2 एससीसी 788 पर भरोसा किया। इस मामले में न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि एक निर्दोष पक्ष को केवल इसलिए अन्याय का सामना नहीं करना पड़ सकता, क्योंकि उसके चुने हुए वकील ने चूक की है।

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इस पर निर्माण करते हुए न्यायालय ने टिप्पणी की:

“भले ही ऊपर उद्धृत मामला वर्ष 1981 का है, हम इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकते कि वादियों के एक बड़े हिस्से के पूरी तरह से अपने वकील पर निर्भर होने की जमीनी हकीकत वही है, खासकर कम आर्थिक और शैक्षिक कौशल वाले क्षेत्रों में।”

इसके मद्देनजर, न्यायालय ने टिप्पणी की कि एक बार अपीलकर्ता को बर्खास्तगी के बारे में पता चला तो उसने जल्दबाजी दिखाई और दूसरी अपील दायर की। इस प्रकार, देरी के कारण को पर्याप्त रूप से स्पष्ट पाते हुए न्यायालय ने अपील को अनुमति दी और देरी को माफ कर दिया।

हाईकोर्ट के समक्ष मामले को बहाल करते हुए न्यायालय ने अनुरोध किया कि इसे यथासंभव शीघ्रता से तय किया जाए।

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साभार: लाइव लॉ

विवेक कुमार जैन
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