गुजरात हाईकोर्ट ने डॉक्टर द्वारा कथित मेडिकल लापरवाही के लिए मुआवजे की मांग करने वाला मुकदमा किया खारिज

उच्च न्यायालय मुख्य सुर्खियां
निदान के निर्णय में त्रुटि मात्र मेडिकल लापरवाही नहीं

आगरा / अहमदाबाद 20 सितंबर।

गुजरात हाईकोर्ट ने सिविल कोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई से इन्कार किया, जिसमें एक दम्पति द्वारा डॉक्टर द्वारा कथित मेडिकल लापरवाही के लिए मुआवजे की मांग करने वाला मुकदमा खारिज कर दिया गया था।जिसके परिणामस्वरूप उनके बच्चे की मृत्यु हो गई थी। हाईकोर्ट ने कहा कि मामले के तथ्यों में तथा किसी भी ठोस सामग्री के अभाव में निदान के निर्णय में मात्र त्रुटि को मेडिकल लापरवाही नहीं कहा जा सकता है।

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जस्टिस देवेन एम देसाई की एकल पीठ ने अपने आदेश में कहा,

“ऐसे तथ्यों में जब रोगी ने विभिन्न डॉक्टरों तथा विभिन्न अस्पतालों से उपचार लिया तथा प्रतिवादी नंबर 1 (डॉक्टर) की ओर से मेडिकल लापरवाही साबित करने के लिए किसी भी ठोस सामग्री के अभाव में तथा बीमारी के निदान में मात्र त्रुटि को मेडिकल लापरवाही नहीं कहा जा सकता। माननीय सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न निर्णयों से इस दृष्टिकोण की पुष्टि होती है।”

अदालत ने आगे कहा कि मेडिकल लापरवाही को साबित करने के लिए यह साबित करना होगा कि डॉक्टर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में लापरवाह था और अपनाई गई उपचार पद्धति निर्धारित मेडिकल पद्धति के अनुसार नहीं थी।

“मामले के तथ्यों और परिस्थितियों” को देखते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि वादी – हाईकोर्ट के समक्ष अपीलकर्ता माता-पिता – डॉक्टर द्वारा लापरवाही के आरोपों को साबित करने में सक्षम नहीं थे।

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हाईकोर्ट ने कहा,

“ट्रायल कोर्ट ने इस निष्कर्ष पर पहुंचने में कोई गलती नहीं की, जो मेडिकल साक्ष्य पर आधारित है कि प्रतिवादी नंबर 1 ने लापरवाही से काम नहीं किया है। परिणामस्वरूप, पहली अपील विफल हो जाती है। इसे जुर्माने के संबंध में कोई आदेश दिए बिना खारिज कर दिया जाता है।”

मामले की पृष्ठभूमि

हाईकोर्ट ने दो वर्षीय लड़के के माता-पिता द्वारा दायर अपील में यह आदेश पारित किया, जिसमें सिटी सिविल कोर्ट, अहमदाबाद द्वारा वसूली के लिए उनका मुकदमा खारिज किए जाने को चुनौती दी गई थी। सिविल कोर्ट में माता-पिता ने अपने मुकदमे में 5,00,000/- रुपये का मुआवजा और 18% ब्याज मांगा था, जिसमें आरोप लगाया गया कि डॉक्टर ने मेडिकल लापरवाही की, जिसके कारण जनवरी 1987 में उनके बेटे की मौत हो गई। मुकदमा विभिन्न प्रतिवादियों के खिलाफ दायर किया गया – जिसमें डॉक्टर और एक बीमा कंपनी भी शामिल थी।

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माता-पिता ने दावा किया कि डॉक्टर ने उनके बच्चे को तपेदिक (टीबी) होने का “गलत निदान” किया, जबकि बच्चे को वास्तव में गुर्दे की पथरी (गुर्दे की पथरी) थी। निष्कर्ष प्रतिवादी डॉक्टर के बयान का हवाला देते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि यह सामने आया कि बच्चे को टी.बी. के लिए तीन दवाइयां (टैब. आइसोनेक्स, माइकाबिटोल और सिरप आर.सिन) दी गई थीं।

हालांकि, अदालत ने कहा कि बाद में पता चला कि बच्चे को गुर्दे की पथरी थी। हाईकोर्ट ने कहा कि प्रतिवादी डॉक्टर के बयान के अलावा माता-पिता “कोई भी प्रतिकूल तथ्य नहीं निकाल पाए, जो डॉक्टर की ओर से लापरवाही को जिम्मेदार ठहराता है,” जिसके परिणामस्वरूप बच्चे की मौत हुई।

इसके बाद न्यायालय ने कहा कि उसके समक्ष प्रस्तुत तथ्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि यह “निर्णय में त्रुटि का मामला” है। हाईकोर्ट ने आगे कहा कि माता-पिता को “ठोस और विश्वसनीय मेडिकल साक्ष्य” प्रस्तुत करके यह स्थापित करना था कि उनके बच्चे की मृत्यु “दर्ज की गई दवाओं के दुष्प्रभाव” के कारण हुई थी।

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हाईकोर्ट ने कहा,

“बच्चे का इलाज करने वाले किसी भी डॉक्टर ने मेडिकल लिटरेचर पर भरोसा करके यह राय नहीं दी कि प्रतिवादी नंबर 1 द्वारा निर्धारित दवाएं ही बच्चे की मृत्यु का अंतिम कारण हैं। मेडिकल लापरवाही स्थापित करने के लिए निर्णायक मेडिकल साक्ष्य होना चाहिए, जो यह तथ्य स्थापित कर सके कि डॉक्टर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में लापरवाह रहा है और रोगी के उपचार में जो उपचार अपनाया गया, वह निर्धारित चिकित्सा पद्धति के अनुसार नहीं था।”

न्यायालय ने पाया कि बच्चे की जांच करने वाले किसी भी डॉक्टर ने यह गवाही नहीं दी कि निर्धारित तीन दवाओं और मृत्यु के कारण के “दुष्प्रभावों का संबंध” है।

अदालत ने कहा,

“जैसा कि पहले उल्लेख किया गया, यह वादी का मामला नहीं है कि उपरोक्त तीन दवाओं के दुष्प्रभावों के कारण उनके बेटे की मृत्यु हो गई। प्रतिवादी नंबर 1 के अनुसार दुष्प्रभाव रोगी के लिए घातक नहीं है।”

इसके बाद अदालत ने माता-पिता की अपील खारिज कर दी।

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विवेक कुमार जैन
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