आगरा / प्रयागराज 09 अक्टूबर।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पाया कि केंद्रीय प्रशासनिक ट्रिब्यूनल सिविल न्यायालयों के विकल्प हैं क्योंकि पहले सिविल कोर्ट में निहित अधिकार क्षेत्र को उन ट्रिब्यूनल को ट्रांसफर कर दिया गया, जिनके पास सिविल कोर्ट के लिए निर्धारित समान शक्तिया और प्रक्रियाएं हैं।
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जस्टिस राजन रॉय और जस्टिस ओम प्रकाश शुक्ला की पीठ ने कहा,
“अधिनियम 1985 के तहत केंद्रीय प्रशासनिक ट्रिब्यूनल के गठन से पहले उपाय सिविल कोर्ट के समक्ष था। इसलिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 323-ए के तहत वैकल्पिक मंच प्रदान किया गया। यह साक्ष्य ले सकता है, उसका मूल्यांकन कर सकता है और तथ्यों के निष्कर्षों को दर्ज कर सकता है।”
याचिकाकर्ता द्वारा दायर ट्रांसफर आवेदन में केंद्रीय प्रशासनिक ट्रिब्यूनल लखनऊ के आदेश के खिलाफ याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
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न्यायालय ने वकीलों से कुछ प्रश्न पूछे थे। अंतिम सुनवाई पर न्यायालय ने माना कि संभावना की प्रबलता स्थापित करने के लिए साक्ष्य अभियुक्त के खिलाफ लगाए गए आरोप और अन्य तथ्यात्मक प्रश्नों के बारे में प्रश्न प्रशासनिक ट्रिब्यूनल एक्ट 1985 के तहत अनुशासनात्मक कार्यवाही में ट्रिब्यूनल द्वारा ही तय किए जा सकते हैं।
यह माना गया कि 1985 का अधिनियम यह सुनिश्चित करने के लिए लागू किया गया कि केंद्र और राज्य सरकार के कर्मचारियों को उनकी सेवा और सेवा शर्तों से संबंधित विवादों के बारे में त्वरित और प्रभावी निर्णय के लिए एक मंच मिले।
कोर्ट ने माना कि ट्रिब्यूनल के पास 1985 के अधिनियम के तहत न्यायिक पुनर्विचार की वही शक्तियां नहीं हैं, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट के पास हैं। यह माना गया कि भले ही सीपीसी ट्रिब्यूनल को बाध्य नहीं करता है। फिर भी ट्रिब्यूनल द्वारा पालन की जाने वाली समान प्रक्रिया अधिनियम में निर्धारित की गई, जिससे उन्हें सिविल कोर्ट के समान शक्तियां प्राप्त होती हैं।
“किसी भी व्यक्ति को बुलाने और उसकी उपस्थिति सुनिश्चित करने और शपथ पर उसकी जांच करने, दस्तावेजों की खोज और उत्पादन की आवश्यकता हलफनामों पर साक्ष्य प्राप्त करने किसी भी सार्वजनिक रिकॉर्ड या दस्तावेज, या किसी भी कार्यालय से ऐसे रिकॉर्ड या दस्तावेज की प्रतिलिपि की मांग करने की ऐसी शक्तियों का निहित होना, गवाहों या दस्तावेजों की जांच के लिए कमीशन जारी करना, जैसा कि सिविल कोर्ट द्वारा मुकदमे की सुनवाई करते समय किया जाता है, जो कि प्रथम दृष्टया न्यायालय है, यह स्पष्ट है कि सेवा विवाद का निपटारा करते समय ट्रिब्यूनल को तथ्य के प्रश्नों पर विचार करने और साक्ष्य के आधार पर तथ्यात्मक मुद्दों पर निर्णय लेने का अधिकार है, जैसा कि सिविल कोर्ट द्वारा किया जाता है, भले ही वह सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के प्रावधानों से बाध्य न हो।”
न्यायालय ने माना कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट के पास साक्ष्य, तथ्य खोजने का अधिकार नहीं है। वे केवल सारांश कार्यवाही से निपटते हैं।
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एल. चंद्र कुमार बनाम भारत संघ में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला देते हुए न्यायालय ने माना कि ट्रिब्यूनल द्वारा पारित आदेश प्रकृति में सारांश था, जैसे कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अधिकार क्षेत्र के प्रयोग में पारित किया गया हो। यह माना गया कि भले ही सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि ट्रिब्यूनल हाईकोर्ट के समान शक्तियों का प्रयोग करते हैं लेकिन यह प्रथम दृष्टया न्यायालय के रूप में कार्य करने की जिम्मेदारी को नहीं छीनता है।
न्यायालय ने ट्रिब्यूनल को ट्रांसफर आवेदन पर पुनः सुनवाई करने का निर्देश दिया।
केस टाइटल: अरुण कुमार गुप्ता बनाम भारत संघ के माध्यम से सचिव, रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय विभाग, रसायन पेट्रो रसायन एवं अन्य
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साभार: लाइव लॉ
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