आगरा /नई दिल्ली 25 सितंबर ।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मृत्युदंड कम करने में अन्य परिस्थितियों के साथ-साथ अपराध के समय दोषी की आयु भी प्रासंगिक होगी।
यह देखते हुए कि अपराध के समय दोषी की आयु 22 वर्ष थी और वह समाज के सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग से आता था, जहां उसके और उसके परिवार के सदस्यों की कोई आपराधिक पृष्ठभूमि नहीं थी।
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जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा और जस्टिस केवी विश्वनाथन की पीठ ने उसकी मृत्युदंड की सजा को 20 वर्ष की निर्धारित आजीवन कारावास में बदलकर उसे राहत प्रदान की।
यह वह मामला था, जिसमें दोषी को नाबालिग से बलात्कार और हत्या करने के लिए मृत्युदंड की सजा सुनाई गई थी। अपीलकर्ता को भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) की धारा 450, 376(2)(i), 376डी, 376ए और 302 सहपठित 34 तथा यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO Act) की धारा 5(जी)/6 के तहत दोषी ठहराया गया। उसे धारा 376ए और 302 आईपीसी के तहत मृत्युदंड, धारा 376डी के तहत आजीवन कारावास और धारा 450 के तहत 10 वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई।
हाईकोर्ट ने सजा की पुष्टि की। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपीलकर्ता/दोषी के सीनियर वकील एन. हरिहरन ने तर्क दिया कि निचली अदालतों ने मृत्युदंड देते समय कम करने वाली परिस्थितियों और गंभीर परिस्थितियों के बीच संतुलन पर विचार नहीं किया। उनके अनुसार, अपीलकर्ता ने अपनी मां और भाई को कम उम्र में खो दिया, अपीलकर्ता की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि और अपराध के समय अपीलकर्ता की उम्र तथा जेल में उसका आचरण और व्यवहार उसे सजा में छूट का हकदार बनाता है।
इसके विपरीत, डिप्टी-एडवोकेट जनरल भूपेंद्र प्रताप सिंह ने दलील दी कि वर्तमान मामला पूरी तरह से ‘दुर्लभतम’ मामलों की श्रेणी में आता है, क्योंकि अपीलकर्ता ने इस परिस्थिति का फायदा उठाते हुए कि मृतक घर में अकेला था, जघन्य अपराध किया। उन्होंने दलील दी कि अपीलकर्ता की सजा में छूट देते समय केवल उसकी उम्र को ध्यान में नहीं रखा जा सकता।
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कोर्ट के समक्ष मुद्दा ?
न्यायालय के विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या यह मामला मृत्युदंड की पुष्टि करने के लिए ‘दुर्लभतमतम मामले’ की श्रेणी में आएगा या सजा में छूट दी जा सकती है।
कोर्ट का निष्कर्ष
अपने निष्कर्षों पर पहुंचने से पहले न्यायालय ने कहा कि मृत्युदंड की पुष्टि की जानी चाहिए या नहीं, इस पर विचार करते समय विभिन्न कारकों को ध्यान में रखना उचित होगा।
न्यायालय ने अपीलकर्ता के जेल में रहने के दौरान उसकी मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन रिपोर्ट का अवलोकन किया और पाया कि जेल में अपीलकर्ता का आचरण संतोषजनक था। रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि हालांकि उसे कोई काम नहीं दिया गया है, लेकिन अपीलकर्ता खुद को पेड़ लगाने और मंदिर तथा आस-पास के क्षेत्र की सफाई में व्यस्त रखता है।
न्यायालय प्रतिवादी के इस तर्क को स्वीकार करने के लिए इच्छुक नहीं था कि अपीलकर्ता की कम उम्र मृत्युदंड को कम करने का आधार नहीं बन सकती। इसके बजाय, न्यायालय ने सजा कम करने की याचिका पर निर्णय लेते समय अपीलकर्ता की कम उम्र के साथ-साथ विभिन्न परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा।
जस्टिस गवई द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया,
“हालांकि, सिंह सही हैं कि अपराध के समय अपीलकर्ता की उम्र को अकेले ध्यान में नहीं रखा जा सकता है, तथापि अपराध के समय अपीलकर्ता/आरोपी की उम्र के साथ-साथ अन्य कारकों को निश्चित रूप से ध्यान में रखा जा सकता है कि मृत्युदंड को माफ किया जाना चाहिए या नहीं।”
अदालत ने कहा,
“वर्तमान मामले में यह ध्यान देने योग्य है कि अपीलकर्ता समाज के सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े तबके से आता है। जैसा कि पहले ही चर्चा की जा चुकी है, उसने कम उम्र में ही अपनी माँ और भाई को खो दिया। अपीलकर्ता और उसके परिवार के सदस्यों की कोई आपराधिक पृष्ठभूमि नहीं है। उक्त घटना के समय अपीलकर्ता की उम्र 22 वर्ष थी।”
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उपरोक्त परिस्थितियों के आधार पर अदालत ने कहा,
“यह नहीं कहा जा सकता कि अपीलकर्ता कठोर अपराधी है, जिसे सुधारा नहीं जा सकता। यदि अपीलकर्ता को सुधार का मौका दिया जाता है तो उसके सुधार की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।”
अपीलकर्ता के तर्क को स्वीकार करते हुए अदालत ने मृत्युदंड को बिना किसी छूट के 20 वर्ष के आजीवन कारावास में बदलने का फैसला किया।
अदालत ने कहा,
“इसलिए हम पाते हैं कि वर्तमान मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में मृत्युदंड को बिना किसी छूट के 20 वर्ष की अवधि के लिए निश्चित कारावास में बदलने की आवश्यकता है।”
तदनुसार, अपील को इस सीमा तक अनुमति दी गई कि धारा 376 ए और 302 आईपीसी के तहत दी गई मौत की सजा को 20 साल के कठोर कारावास में बदल दिया जाता है।
केस टाइटल: रब्बू @ सर्वेश बनाम मध्य प्रदेश राज्य, आपराधिक अपील संख्या 449-450 वर्ष 2019
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साभार: लाइव लॉ
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