अमान्य विवाह से पैदा हुए बच्चों का भी माता-पिता की संपत्ति पर अधिकार: केरल हाईकोर्ट

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आगरा / कोच्चि 26 सितंबर ।

केरल हाईकोर्ट ने हाल ही में एक व्यक्ति की अमान्य दूसरी शादी से पैदा हुए तीन बच्चों को टर्मिनल और पेंशन लाभ प्रदान किए जिसे उसने पहली शादी को भंग किए बिना किया था।

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जस्टिस हरिशंकर वी. मेनन ने रेवनसिद्दप्पा बनाम मल्लिकार्जुन (2023) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा करते हुए और हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 16 में संशोधन करते हुए कहा कि अमान्य विवाह से पैदा हुए बच्चों को भी माता-पिता की संपत्ति पर अधिकार होगा।

कोर्ट ने कहा,

“यह न्यायालय रेवनसिद्दप्पा बनाम मल्लिकार्जुन [2023 (5) केएचसी 486] में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर भी ध्यान देता है, जिस पर चौथे प्रतिवादी के वकील ने भरोसा किया, जिसमें अधिनियम की धारा 16 के संशोधित प्रावधानों के संदर्भ में न्यायालय ने माना है कि अमान्य विवाह से पैदा हुए बच्चों को भी माता-पिता की संपत्ति पर अधिकार होगा। इसलिए ऊपर उल्लिखित अधिनियम की धारा 16 के तहत संशोधित प्रावधानों के आधार पर सी. श्रीनिवासन और चौथे प्रतिवादी के विवाह से पैदा हुए तीन बच्चे भी वैध हैं।”

मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता ने वर्ष 1983 में हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार सी. श्रीनिवासन से विवाह किया और विवाह से उनकी एक बेटी पैदा हुई। वह केरल राज्य नागरिक आपूर्ति निगम में सहायक सेल्समैन के रूप में काम करता था।

पहली शादी के दौरान उसने 1986 में दूसरी महिला से दूसरी शादी कर ली। इसके बाद उसने याचिकाकर्ता से एकतरफा तलाक ले लिया, जिसे बाद में फैमिली कोर्ट ने खारिज कर दिया। उसने और उसकी दूसरी पत्नी ने इस्लाम धर्म अपना लिया और इस्लामी रीति-रिवाजों के अनुसार शादी कर ली। दूसरी शादी से उसके तीन बच्चे थे।

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याचिकाकर्ता के पति की वर्ष 2015 में मृत्यु हो गई और निगम ने उनके कानूनी उत्तराधिकारियों पर विवाद के कारण टर्मिनल/पेंशन लाभ के लिए उसके अनुरोध को अस्वीकार कर दिया। इस बीच मृतक के साथ दूसरी शादी करने वाली महिला और उसके बच्चों ने कानूनी उत्तराधिकार प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिया।

इस प्रकार याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर कर यह घोषित करने की मांग की कि वह उसकी बेटी और उसकी मां मृतक की कानूनी उत्तराधिकारी हैं।

याचिकाकर्ता ने दूसरी पत्नी को जारी कानूनी उत्तराधिकार प्रमाण पत्र को भी रद्द करने की मांग की। अनुरोध किया कि निगम उसके दिवंगत पति के टर्मिनल और पेंशन लाभ जारी करे।

याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि मृतक के धर्म परिवर्तन से हिंदू विवाह समाप्त नहीं होगा। यह तर्क दिया गया कि पहली शादी को समाप्त किए बिना इस्लाम धर्म अपनाने के बाद हिंदू पति का दूसरा विवाह अमान्य और शून्य है। यह भी कहा गया कि धर्म परिवर्तन दूसरी शादी करने और याचिकाकर्ता को कानूनी उत्तराधिकारी लाभ से वंचित करने के लिए किया गया।

मामले का निष्कर्ष

न्यायालय ने सरला मुद्गल बनाम भारत संघ (1995), लिली थॉमस बनाम भारत संघ (2000) में सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों पर भरोसा करते हुए कहा,

“उपर्युक्त निर्णयों का सार यह है कि यदि कोई हिंदू व्यक्ति किसी हिंदू महिला के साथ अधिनियम के तहत विवाह करता है तो वह केवल दूसरे धर्म में धर्मांतरण करके हिंदू पत्नी के साथ वैवाहिक संबंध समाप्त नहीं कर सकता, जब तक कि पहले का विवाह जारी है। इस मामले में व्यक्तिगत कानूनों का संदर्भ नहीं दिया जा सकता है।”

न्यायालय ने आगे कहा कि पक्षों ने 1986 में दूसरा विवाह किया, जबकि उन्होंने इस्लाम धर्म अपना लिया और मुस्लिम कानूनों के अनुसार कानूनी विवाह 1994 में ही किया। इस प्रकार न्यायालय ने कहा कि पहला विवाह भंग किए बिना दूसरा विवाह किया गया था।

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न्यायालय ने पाया कि भले ही दूसरे विवाह को अमान्य घोषित कर दिया गया लेकिन उसने दूसरा विवाह किया। दोनों पक्ष पति-पत्नी के रूप में साथ रहते थे और उनके तीन बच्चे भी थे। न्यायालय ने कहा कि उस विवाह से पैदा हुए तीन बच्चे भी मृतक के अंतिम लाभ के हकदार हैं।

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 16 में 1976 में लाए गए संशोधनों का उल्लेख करते हुए न्यायालय ने कहा कि विधायिका ने अमान्य विवाह से या पहले विवाह के विघटन से पहले पैदा हुए बच्चों के अधिकारों को वैध बनाया।

न्यायालय ने कहा,

“सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि उपरोक्त संशोधन इसलिए लाए गए, जिससे सामाजिक सुधार लाया जा सके। मासूम बच्चों के एक समूह को वैधता का सामाजिक दर्जा प्रदान किया जा सके, आदि, जैसा कि परायणकंदियाल एरावतकनप्रवण कलियानी अम्मा बनाम देवी [(1996) 4 एससीसी 76] में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में कहा गया।”

न्यायालय ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता और उसकी बेटी को कानूनी उत्तराधिकार प्रमाणपत्र देने से मृतक की दूसरी शादी से पैदा हुए अन्य तीन बच्चों के अधिकार नहीं छिनेंगे।

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न्यायालय ने याचिकाकर्ता उसकी बेटी और मृतक की दूसरी शादी से पैदा हुए तीन बच्चों और उनकी मां को कानूनी उत्तराधिकार प्रमाणपत्र देने का निर्देश दिया। इसने याचिकाकर्ता उसकी बेटी, सास और दूसरी शादी से पैदा हुए तीन बच्चों को पेंशन/अंतिम लाभ देने का भी निर्देश दिया।

केस टाइटल: अनिता टी बनाम केरल स्टेट सिविल सप्लाइज कॉर्पोरेशन लिमिटेड

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साभार: लाइव लॉ

विवेक कुमार जैन
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