सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड हाईकोर्ट द्वारा 3 साल से अधिक समय से आपराधिक अपीलों पर फैसला न सुनाने के खिलाफ याचिका पर जारी किया नोटिस

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आगरा/नई दिल्ली 24 अप्रैल ।

सुप्रीम कोर्ट ने 4 दोषियों द्वारा दायर याचिका पर नोटिस जारी किया। इस याचिका में आरोप लगाया गया कि उनकी आपराधिक अपीलों पर निर्णय सुरक्षित है और 2-3 वर्ष बीत जाने के बावजूद भी झारखंड हाईकोर्ट द्वारा निर्णय नहीं सुनाया गया है ।

उल्लेखनीय है कि दोषी अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग समुदायों से संबंधित हैं। उन्हें आजीवन कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। तीन को हत्या के लिए दोषी ठहराया गया था, वहीं एक को बलात्कार के आरोप में दोषी ठहराया गया था। चारों में से एक दोषी 16 वर्षों से अधिक समय से जेल में है, जबकि अन्य ने भी 11-14 वर्षों की वास्तविक हिरासत अवधि का सामना किया है।

मामले को गंभीरता से लेते हुए जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की खंडपीठ ने हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को सीलबंद लिफाफे में सुरक्षित निर्णयों के संबंध में स्टेटस रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए कहा। न्यायालय ने दोषियों द्वारा सजा के निलंबन के लिए दायर आवेदनों पर भी नोटिस जारी किया, क्योंकि उनकी ओर से यह प्रस्तुत किया गया कि वे छूट के लिए आवेदन नहीं कर सकते, क्योंकि हाईकोर्ट द्वारा निर्णय सुरक्षित रखे गए हैं।

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याचिका में किए गए दावों के अनुसार, दोषी बिरसा मुंडा सेंट्रल जेल, होटवार, रांची में बंद हैं। उन्होंने रांची में झारखंड हाईकोर्ट के समक्ष अपनी सजा को चुनौती देते हुए आपराधिक अपील दायर की थी। निर्णय 2022 में सुरक्षित रखे गए लेकिन आज तक भी हाईकोर्ट ने निर्णय नहीं सुनाए हैं। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि निर्णय न सुनाए जाने से संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उनके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन होता है, जिसका एक पहलू ‘शीघ्र सुनवाई का अधिकार’ है।

कहा गया,

“इस माननीय न्यायालय ने हुसैनारा खातून (सुप्रा) में माना कि त्वरित सुनवाई संविधान के अनुच्छेद 21 का एक पहलू है। और आगे अख्तरी बी (सुप्रा) में माना है कि अपील, सुनवाई का विस्तार है। इसलिए याचिकाकर्ताओं के पास अनुच्छेद 21 के अधिकार हैं और अपील में भी अनुच्छेद 21 से निकलने वाले त्वरित सुनवाई के अधिकार हैं।”

एचपीए इंटरनेशनल बनाम भगवानदास फतेह चंद दासवानी का हवाला देते हुए उन्होंने बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक न्यायालयों द्वारा लंबे समय तक निर्णय सुरक्षित रखने की प्रथा पर अफसोस जताया है।

याचिका में कहा गया,

“इस माननीय न्यायालय ने अनिल राय (सुप्रा) में माना कि अपील में निर्णय सुनाने के संबंध में दंड प्रक्रिया संहिता में कोई स्पष्ट प्रावधान निर्धारित नहीं होने के बावजूद, सुनवाई के मामले में धारा 353 के विशिष्ट प्रावधान के विपरीत अपील में निर्णय अभी भी बिना देरी के सुनाए जाने चाहिए, क्योंकि अपील न्याय व्यवस्था का हिस्सा है।”

यह भी आरोप लगाया गया कि इसी स्थिति में 10 अन्य दोषी हैं, जिनकी अपील पर सुनवाई हो चुकी है, लेकिन तीन साल (लगभग) से अधिक समय से निर्णय नहीं सुनाया गया।

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सजा के निलंबन की प्रार्थना के संबंध में सौदान सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और जमानत देने की नीति रणनीति का संदर्भ दिया गया। इसमें माना गया था कि यदि किसी दोषी ने 8 साल की वास्तविक सजा काट ली है तो अधिकांश मामलों में जमानत ही नियम होगा।

यह भी उल्लेख किया गया कि याचिकाकर्ताओं ने चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया, झारखंड हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस और कानूनी सहायता निकायों सहित विभिन्न अधिकारियों के समक्ष अभ्यावेदन किया। साथ ही उन अधिकारियों को पत्र भी दिए, जो नियमित रूप से जेल का दौरा करते थे। लेकिन, कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली।
याचिका एओआर फौजिया शकील के माध्यम से दायर की गई।

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साभार: लाइव लॉ

विवेक कुमार जैन
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