सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक पर दर्ज आपराधिक मामलों का मांगा डेटा

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न्यायालय ने टिप्पणी की कि याचिकाकर्ता केवल इस प्रथा के अपराधीकरण को चुनौती दे रहे हैं, न कि इस प्रथा का कर रहे हैं बचाव

आगरा /नई दिल्ली 30 जनवरी ।

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 के लागू होने के बाद से मुस्लिम महिलाओं द्वारा दर्ज मामलों की संख्या पर डेटा मांगा, जो तत्काल ट्रिपल तलाक के उच्चारण के माध्यम से मुसलमानों में तलाक की प्रथा को अपराध बनाता है।

भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति पीवी संजय कुमार की पीठ 2019 के कानून, खास तौर पर तीन तलाक की प्रथा को अपराध बनाने वाले प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। न्यायालय ने तीन तलाक के लंबित मामलों और अधिनियम के खिलाफ उच्च न्यायालयों के समक्ष लंबित किसी भी चुनौती के बारे में भी पूछा।

न्यायालय ने संक्षिप्त प्रारंभिक सुनवाई के बाद आदेश दिया,

“दोनों पक्षों को लिखित रूप से अपनी दलीलें पेश करनी चाहिए। जांच करें और दर्ज की गई एफआईआर की संख्या के बारे में हमें जानकारी दें।”

न्यायालय ने यह भी टिप्पणी की कि याचिकाकर्ता केवल इस प्रथा के अपराधीकरण को चुनौती दे रहे हैं और इस प्रथा का बचाव नहीं कर रहे हैं।

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सीजेआई खन्ना ने टिप्पणी की,

“मुझे यकीन है कि यहां कोई भी वकील यह नहीं कह रहा है कि यह प्रथा सही है, लेकिन वे यह कह रहे हैं कि क्या इसे अपराध बनाया जा सकता है ? जबकि इस प्रथा पर प्रतिबंध है और एक बार में तीन बार तलाक बोलने से तलाक नहीं हो सकता है।”

सॉलिसिटर जनरल (एसजी) तुषार मेहता ने कहा कि आंकड़े यह दिखाने के लिए महत्वपूर्ण होंगे कि क्या यह प्रतिगामी प्रथा जारी है और क्या महिलाएं आगे आ रही हैं या नहीं ?

उन्होंने कहा,

“महिलाओं की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है और यह निवारक होना चाहिए। आनुपातिकता (याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाए गए) के तर्क पर, ऐसे कई (अन्य) अपराध हैं जिनमें 3 साल से अधिक कारावास की सजा है।”

याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिवक्ता निज़ाम पाशा ने कहा कि पत्नी को छोड़ना किसी अन्य समुदाय में आपराधिक अपराध नहीं है।

इस पर, एसजी मेहता ने कहा,

“तीन तलाक़ अन्य समुदायों में भी प्रचलित नहीं है।”

याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता एमआर शमशाद ने कहा कि वैवाहिक मामलों में महीनों तक एफ़आईआर दर्ज नहीं की जाती है और यहाँ तो सिर्फ़ बयानबाज़ी के लिए एफ़आईआर दर्ज कर ली जाती है।

एसजी मेहता ने जवाब दिया,

“किसी भी सभ्य क्षेत्र में ऐसी प्रथा नहीं है।”

इसके बाद न्यायालय ने मामले को इस आदेश के साथ स्थगित कर दिया कि इन मामलों को ‘मुस्लिम महिलाओं (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 के संवैधानिक अधिकारों को चुनौती’ के रूप में कॉज़लिस्ट में दिखाया जाएगा।

किसी भी सभ्य क्षेत्र में ऐसी प्रथा नहीं है।  —– एसजी तुषार मेहता

जब न्यायालय मामले को स्थगित कर रहा था, तो एसजी मेहता ने तलाक के बारे में एक उर्दू दोहे का उल्लेख करना चुना,

“तलाक दे तो रहे हो गुरुर-ओ-शुर के साथ

मेरी जवानी भी लौटा दो मेरे मेहर के साथ”

इसके बाद न्यायालय ने टिप्पणी की कि याचिकाकर्ताओं के वकील इस प्रथा का बचाव करते नहीं दिख रहे हैं।

अगस्त 2017 में, सुप्रीम कोर्ट ने शायरा बानो बनाम भारत संघ के मामले में एक बार में तीन तलाक (तलाक-ए-बिदत) की प्रथा को असंवैधानिक और अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन करने वाला करार दिया था।

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इसके बाद, संसद ने मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 पारित किया, जो एक बार में तीन तलाक को अपराध बनाता है।

कोई भी पति जो ऐसा करता है, उसके खिलाफ इस कानून के तहत मामला दर्ज किया जा सकता है।

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में इस कानून को चुनौती देने वाली कई याचिकाएँ दायर की गईं।

याचिकाकर्ताओं के अनुसार, कानून ने धार्मिक पहचान के आधार पर व्यक्तियों के एक वर्ग के लिए दंडात्मक कानून पेश किया है। यह गंभीर सार्वजनिक शरारत का कारण है, जिस पर अगर अंकुश नहीं लगाया गया तो समाज में ध्रुवीकरण और वैमनस्य पैदा हो सकता है।

चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही शायरा बानो मामले में तत्काल तीन तलाक की प्रथा को असंवैधानिक घोषित कर दिया है, इसलिए यह कानून किसी काम का नहीं है, याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है।

यह तर्क दिया गया है कि अधिनियम के पीछे का उद्देश्य तीन तलाक को खत्म करना नहीं बल्कि मुस्लिम पतियों को दंडित करना है।

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साभार: बार & बेंच

विवेक कुमार जैन
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