आगरा/प्रयागराज: २५ जुलाई ।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसले में टेलीविजन, इंटरनेट और सोशल मीडिया के किशोरों पर पड़ने वाले “विनाशकारी प्रभावों” पर गहरी चिंता व्यक्त की है।
कोर्ट ने कहा है कि ये माध्यम बहुत कम उम्र में ही उनकी मासूमियत को खत्म कर रहे हैं और इनकी अनियंत्रित प्रकृति के कारण सरकार भी इनके प्रभाव को नियंत्रित नहीं कर सकती।
यह टिप्पणी न्यायमूर्ति सिद्धार्थ की एकल पीठ ने एक किशोर की क्रिमिनल रिवीजन याचिका पर सुनवाई करते हुए की। इस याचिका में किशोर न्याय बोर्ड और कौशांबी की पॉक्सो कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें एक नाबालिग लड़की के साथ सहमति से शारीरिक संबंध बनाने के मामले में उस पर एक वयस्क के रूप में मुकदमा चलाने का निर्देश दिया गया था।
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कोर्ट का फैसला:
* मानसिक क्षमता पर जोर: कोर्ट ने पाया कि किशोर का मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन उसके पक्ष में था। रिपोर्ट के अनुसार, 16 साल के इस किशोर का IQ 66 था, जो उसे “बौद्धिक कार्यशीलता की सीमांत श्रेणी” में रखता है। इसके अलावा, एक मानसिक परीक्षण के आधार पर उसकी मानसिक आयु केवल 6 वर्ष आंकी गई थी।
* शिकारी की प्रवृत्ति नहीं: कोर्ट ने कहा कि रिकॉर्ड में ऐसा कोई सबूत नहीं है जिससे यह लगे कि यह किशोर कोई “शिकारी” है या उसमें बिना उकसावे के अपराध दोहराने की प्रवृत्ति है। सिर्फ इसलिए कि उसने एक गंभीर अपराध किया है, उसे वयस्क नहीं माना जा सकता।
* वयस्क के रूप में मुकदमा नहीं: हाईकोर्ट ने कहा कि किशोर न्याय अधिनियम की धारा 15 के तहत प्रारंभिक मूल्यांकन के चार मापदंडों पर विचार करना आवश्यक है, जिसमें मानसिक क्षमता, जघन्य अपराध करने की शारीरिक क्षमता, और अपराध के परिणामों को समझने की क्षमता शामिल है। इन सभी पर विचार करने के बाद, कोर्ट ने फैसला सुनाया कि किशोर पर एक वयस्क के रूप में नहीं, बल्कि एक किशोर के रूप में ही मुकदमा चलाया जाना चाहिए।
यह फैसला इस बात पर जोर देता है कि किशोर न्याय के मामलों में सिर्फ अपराध की गंभीरता ही नहीं, बल्कि किशोर की मानसिक और बौद्धिक स्थिति का भी गहराई से मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
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