यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया
आगरा / नई दिल्ली 01 अक्टूबर ।
सुप्रीम कोर्ट ने असम के 47 निवासियों द्वारा दायर अवमानना याचिका पर असम राज्य को नोटिस जारी किया, जिसमें 17 सितंबर, 2024 के न्यायालय के अंतरिम आदेश का जानबूझकर उल्लंघन करने का आरोप लगाया गया, जिसके तहत निर्देश दिया गया था कि न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना देश भर में कोई भी विध्वंस नहीं किया जाना चाहिए।
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जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस केवी विश्वनाथन की पीठ ने तीन सप्ताह के भीतर जवाब देने योग्य नोटिस जारी करते हुए यह भी आदेश दिया कि इस बीच पक्षकारों द्वारा यथास्थिति बनाए रखी जाएगी।
याचिकाकर्ता की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट हुजेफा अहमदी ने कहा कि “न्यायालय के आदेश का घोर उल्लंघन” हुआ है।
क्या था मामला ?
17 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने इस आशय का अंतरिम आदेश पारित किया कि देश में उसकी अनुमति के बिना कोई भी विध्वंस नहीं किया जाना चाहिए। हालांकि यह स्पष्ट किया गया कि यह आदेश सार्वजनिक सड़कों, फुटपाथों, रेलवे लाइनों या जल निकायों पर अतिक्रमण पर लागू नहीं होगा।
इसके तुरंत बाद याचिकाकर्ताओं ने वर्तमान अवमानना मामला दायर किया, जिसमें आरोप लगाया गया कि असम में अधिकारियों ने बिना किसी पूर्व सूचना के उनके घरों को ध्वस्त करने के लिए चिह्नित करके न्यायालय के आदेश का उल्लंघन किया।
दावा किया कि वे भूमि पर अतिक्रमणकारी हैं। अहमदी ने बताया कि ध्वस्तीकरण हो चुका है। उन्होंने यथास्थिति आदेश का अनुरोध करते हुए कहा कि ध्वस्तीकरण जारी है।
याचिका में 20 सितंबर, 2024 को गुवाहाटी हाईकोर्ट के पिछले आदेश का हवाला दिया गया, जिसमें असम के एडवोकेट जनरल ने वचन दिया था कि याचिकाकर्ताओं के खिलाफ तब तक कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी, जब तक कि उनके अभ्यावेदन का निपटारा नहीं हो जाता।
याचिकाकर्ताओं ने कहा कि इसके बावजूद, अधिकारियों ने न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन करते हुए ध्वस्तीकरण प्रक्रिया जारी रखी।
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मामले की पृष्ठभूमि
कई दशकों से कामरूप मेट्रो जिले के सोनापुर मौजा में कचुटोली पाथर और अन्य आस-पास के क्षेत्रों के निवासी होने का दावा करने वाले याचिकाकर्ताओं का कहना है कि वे मूल पट्टादारों (भूमिधारकों) द्वारा निष्पादित पावर ऑफ अटॉर्नी समझौतों के आधार पर भूमि पर रह रहे हैं। हालांकि वे भूमि पर स्वामित्व का दावा नहीं करते हैं, लेकिन उनका तर्क है कि उनका कब्ज़ा कानूनी रूप से वैध है और इन समझौतों द्वारा मान्यता प्राप्त है।
याचिका में आरोप लगाया गया कि सरकारी अधिकारियों ने बिना कोई पूर्व सूचना जारी किए याचिकाकर्ताओं के घरों पर ध्वस्तीकरण के लिए लाल स्टिकर लगा दिए।
उनका तर्क है कि यह कार्रवाई कानून का स्पष्ट उल्लंघन है, विशेष रूप से असम भूमि और राजस्व विनियमन के अध्याय X की धारा 165(3) का, जिसके तहत अधिकारियों को बेदखली नोटिस जारी करने और किसी भी विध्वंस से पहले रहने वालों को खाली करने के लिए एक महीने की अवधि प्रदान करने की आवश्यकता होती है।
याचिका में दावा किया गया कि विध्वंस आदेश प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों, विशेष रूप से ऑडी अल्टरम पार्टम के सिद्धांत का उल्लंघन करता है, जो निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार की गारंटी देता है।
यह तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ताओं को अपना बचाव करने का कोई अवसर नहीं दिया गया। नोटिस की कमी ने उन्हें संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के तहत उनके अधिकारों का उल्लंघन करते हुए उनके घरों और आजीविका से वंचित कर दिया।
याचिका में कहा गया,
“आवास/आश्रय का अधिकार मौलिक अधिकार है, जैसा कि माननीय न्यायालय ने कई मौकों पर माना है। यह संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत अधिकार का अभिन्न अंग है। नागरिकों के इस अधिकार को स्पष्ट रूप से कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना छीना या उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। इसलिए कथित अपराधों के लिए दंडात्मक उपाय के रूप में प्रतिवादी राज्य में अधिकारियों द्वारा संपत्तियों को ध्वस्त करना भी संविधान के तहत गारंटीकृत इस मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।”
केस टाइटल: फारुक अहमद और अन्य बनाम असम राज्य
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साभार: लाइव लॉ
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