आगरा/नई दिल्ली:
सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा है कि राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी ) को धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए ) के तहत किसी मामले की जांच शुरू करने के लिए प्रवर्तन निदेशालय (ईडी ) को निर्देश देने का कोई अधिकार नहीं है।
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई ) बीआर गवई और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की खंडपीठ ने वारिस केमिकल्स (प्रा.) लिमिटेड (2025) मामले का हवाला देते हुए यह बात कही।
कोर्ट ने कहा कि एनजीटी केवल एनजीटी अधिनियम, 2010 की धारा 15 के तहत मिली शक्तियों के दायरे में ही काम कर सकता है। पीएमएलए के तहत जांच करने का अधिकार सिर्फ विशेष अदालतों और संवैधानिक अदालतों को ही है, एनजीटी को नहीं।
कोर्ट ने इस मामले में ईडी को जांच के लिए दिए गए एनजीटी के निर्देश को रद्द कर दिया।

पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति का कारोबार से कोई संबंध नहीं:
सुप्रीम कोर्ट ने बेंज़ो केम इंडस्ट्रियल (प्रा.) लिमिटेड मामले में अपने पहले के फैसले को दोहराते हुए यह भी स्पष्ट किया कि किसी कंपनी पर पर्यावरणीय प्रदूषण के लिए लगाया गया जुर्माना उसके कारोबार से संबंधित नहीं होना चाहिए।
इस मामले में, एनजीटी ने एक कंपनी पर उसके 550 करोड़ रुपये के टर्नओवर के आधार पर 50 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया था।
कोर्ट ने कहा कि जुर्माना लगाने के लिए एनजीटी द्वारा अपनाई गई यह पद्धति कानून के किसी भी सिद्धांत के विरुद्ध है। कोर्ट ने चेतावनी दी कि कानून का शासन किसी भी सरकारी एजेंसी को पर्यावरणीय मामलों में भी “एक पाउंड मांस निकालने” की अनुमति नहीं देता।
पर्यावरण नियमों का उल्लंघन करने वाले विभागों को बंद करने का एनजीटी का निर्देश रद्द:
इस मामले में एनजीटी ने यह भी निर्देश दिया था कि कंपनी के वे सभी विभाग बंद कर दिए जाएँ, जहाँ निर्धारित मानकों का पालन नहीं हो रहा था। सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्देश को भी रद्द कर दिया।
कोर्ट ने कहा कि एनजीटी , प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (पीसीबी ) द्वारा तय किए गए नियमों का पालन न करने पर कानून के अनुसार दंड लगा सकता है, लेकिन अनुपालन रिपोर्ट स्वीकार करने के बाद किसी विभाग को सीधे बंद करने का व्यापक निर्देश देने की आवश्यकता नहीं थी।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी इकाई द्वारा वैधानिक शर्तों का उल्लंघन करने पर कार्रवाई करने का अधिकार संबंधित पीसीबी के पास सुरक्षित है।

फैसले में बेवजह कानूनों का हवाला देने पर निराशा:
अंत में, सुप्रीम कोर्ट ने एनजीटी के लंबे फैसले पर निराशा व्यक्त की, जिसमें बिना किसी प्रासंगिकता के अनावश्यक कानूनों और दिशा-निर्देशों का उल्लेख किया गया था।
कोर्ट ने कहा कि “विवेकपूर्ण विचार ही न्यायनिर्णयन का सार है” और अदालतों को केवल बयानबाजी से बचना चाहिए।
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