सुप्रीम कोर्ट ने धर्मांतरण मामले में जमानत देने से इंकार करने पर की इलाहाबाद हाईकोर्ट की आलोचना

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सर्वोच्च अदालत ने जोर देकर कहा कि जब कथित अपराध हत्या, डकैती, बलात्कार आदि जैसा गंभीर नहीं है तो धर्मांतरण जैसे मामले में जमानत आवेदनों को आदर्श रूप से सुप्रीम कोर्ट तक नहीं जाना चाहिए

आगरा /नई दिल्ली 28 जनवरी ।

सुप्रीम कोर्ट ने अवैध धर्मांतरण के मामले में जमानत देने का साहस न दिखाने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट की आलोचना की। न्यायालय ने यहां तक कहा कि वर्तमान मामले जैसे मामले में जमानत देने से इंकार करने से यह आभास होता है कि

“पीठासीन अधिकारी ने जमानत देने के सुस्थापित सिद्धांतों की अनदेखी करते हुए पूरी तरह से अलग-अलग विचार रखे।”

इसने हाईकोर्ट से कम गंभीर अपराध में जमानत देने के अपने विवेकाधीन अधिकार का प्रयोग करने में विफल रहने के लिए भी सवाल किया, जहां आरोपों को निर्णायक साक्ष्य द्वारा अभी तक प्रमाणित नहीं किया गया।

खंडपीठ ने कहा,

“हम समझ सकते हैं कि निचली अदालत ने जमानत देने से इंकार कर दिया, क्योंकि निचली अदालतें शायद ही कभी जमानत देने का साहस जुटा पाती हैं, चाहे वह कोई भी अपराध हो। हालांकि, कम से कम हाईकोर्ट से यह अपेक्षा की जाती है कि वह साहस जुटाए और अपने विवेक का विवेकपूर्ण तरीके से प्रयोग करे।”

अदालत ने जोर देकर कहा कि जब कथित अपराध हत्या, डकैती, बलात्कार आदि जैसा गंभीर नहीं है तो जमानत आवेदनों को आदर्श रूप से सुप्रीम कोर्ट तक नहीं जाना चाहिए।

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जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की खंडपीठ ने एक मौलवी की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए ये टिप्पणियां कीं, जिन्हें मानसिक रूप से दिव्यांग नाबालिग का जबरन धर्म परिवर्तन करने के आरोपों पर उत्तर प्रदेश गैरकानूनी धर्म परिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021 के तहत गिरफ्तार किया गया था।

अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि बच्चे को जबरन मदरसे में रखा गया और उसका धर्म परिवर्तन कराया गया। इन आरोपों के कारण भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 504 और 506 और 2021 अधिनियम की धारा 3 के तहत आरोप लगाए गए।

अपीलकर्ता-मौलवी ने तर्क दिया कि नाबालिग, जिसे उसके माता-पिता ने छोड़ दिया था, उसको उसने बिना किसी कारण के पूरी तरह से मानवीय चिंता के कारण आश्रय प्रदान किया। जबरदस्ती या धर्म परिवर्तन शामिल नहीं है। उन्होंने इस आधार पर रिहाई की मांग की कि वे पहले ही 11 महीने हिरासत में बिता चुके हैं, मुकदमा अभी भी अधूरा है और अभियोजन पक्ष ने पहले ही अपने गवाहों की जांच कर ली है।

ट्रायल कोर्ट के साथ-साथ हाई कोर्ट ने भी अपीलकर्ता को जमानत देने से इंकार किया। इसके बाद अपीलकर्ता-मौलवी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।

हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए कोर्ट ने कहा:

“हम इस तथ्य से अवगत हैं कि जमानत देना विवेक का मामला है। लेकिन विवेक का इस्तेमाल न्यायिक रूप से जमानत देने के सुस्थापित सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए। विवेक का मतलब यह नहीं है कि जज अपनी मर्जी से यह कहकर जमानत देने से इंकार कर दे कि धर्म परिवर्तन बहुत गंभीर बात है। याचिकाकर्ता पर मुकदमा चलाया जाएगा। अंततः अगर अभियोजन पक्ष अपना मामला साबित करने में सफल हो जाता है तो उसे दंडित किया जाएगा।”

न्यायालय ने निचली अदालत के जजों की कार्यप्रणाली पर नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा,

“हर साल इतने सारे सम्मेलन, सेमिनार, कार्यशालाएं आदि आयोजित की जाती हैं कि निचली अदालत के जजों को यह समझाया जा सके कि जमानत आवेदन पर विचार करते समय उन्हें अपने विवेक का प्रयोग कैसे करना चाहिए, मानो निचली अदालत के न्यायाधीशों को सीआरपीसी की धारा 439 या बीएनएसएस की धारा 483 के दायरे के बारे में पता ही नहीं है।”

साथ ही इसने इस मामले में जमानत देने से इनकार करने के लिए हाईकोर्ट पर सवाल उठाया और कहा कि जमानत देने के सुस्थापित सिद्धांतों की अनदेखी करके हाईकोर्ट से ऐसी अपेक्षा नहीं की जाती।

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न्यायालय ने कहा,

“कभी-कभी जब हाईकोर्ट वर्तमान प्रकार के मामलों में जमानत देने से इंकार करता है तो इससे यह आभास होता है कि पीठासीन अधिकारी ने जमानत देने के सुस्थापित सिद्धांतों की अनदेखी करके पूरी तरह से अलग विचार रखे हैं।”

न्यायालय ने अभियोजन पक्ष को ऐसे मामलों में जमानत देने के खिलाफ बार-बार विरोध करने के लिए दोषी ठहराया, जहां जमानत उचित शर्तों पर दी जानी चाहिए थी, जिसके कारण अंततः हाईकोर्ट में अपील दायर की गई। परिणामस्वरूप मामलों का बैकलॉग बढ़ गया।

अदालत ने कहा,

“हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि अगर याचिकाकर्ता को उचित नियमों और शर्तों के अधीन जमानत पर रिहा किया जाता तो अभियोजन पक्ष को क्या नुकसान होता। यही एक कारण है कि हाईकोर्ट और अब दुर्भाग्य से देश के सुप्रीम कोर्ट में जमानत आवेदनों की बाढ़ आ गई है।”

अदालत ने अपील यह कहते हुए स्वीकार की,

“हालांकि मुकदमा चल रहा है और अभियोजन पक्ष के गवाहों की जांच की जा रही है, फिर भी याचिकाकर्ता को उन नियमों और शर्तों के अधीन जमानत पर रिहा करने का आदेश देना उचित मामला है, जिन्हें निचली अदालत उचित समझे।”

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साभार: लाइव लॉ

विवेक कुमार जैन
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