आगरा 19 अगस्त । उत्तराखंड हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका (PIL) के जवाब में उत्तराखंड सरकार को जेलों में मजदूरी करने वाले कैदियों को समान मजदूरी देने के मुद्दे पर विचार करने का निर्देश दिया।
हाइकोर्ट में दाखिल जन हित याचिका में राज्य भर की कई जेलों में मजदूरी करने वाले कैदियों को मजदूरी का भुगतान न किए जाने एवं कठोर परिस्थितियों में काम करने वाले कैदियों को मुआवजे की कमी को संबोधित करने के लिए दायर की गई थी।
इस जनहित याचिका में इस तथ्य को भी उच्च न्यायालय के समक्ष रखा और बताया कि किस प्रकार उत्तराखंड की सितारगंज जेल में जहां कैदी 450 एकड़ के खेत में बिना पारिश्रमिक के काम करते हैं।
चीफ जस्टिस रितु बाहरी और जस्टिस राकेश थपलियाल की खंडपीठ ने गुजरात राज्य और अन्य बनाम गुजरात हाईकोर्ट, (1998) में सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित मिसाल का हवाला दिया, जिसमें विशेष रूप से मजदूरी करने वाले कैदियों की स्थिति को संबोधित किया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कठोर कारावास की सजा के तहत किए गए श्रम को संविधान के अनुच्छेद 23(1) के तहत निषिद्ध “भिक्षावृत्ति” या अन्य प्रकार के जबरन श्रम के बराबर नहीं माना जा सकता।
उसी फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा,”हालांकि, संविधान किसी राज्य को उचित कानून बनाकर अदालत के आदेश के तहत कठोर श्रम के अधीन कैदियों को उनके लाभकारी उद्देश्य या अन्यथा के लिए मजदूरी (चाहे किसी भी नाम से पुकारा जाए) देने से नहीं रोकता है।”
सुप्रीम कोर्ट के इस स्पष्ट मार्गदर्शन के बावजूद, उत्तराखंड हाईकोर्ट ने चिंता व्यक्त की कि राज्य सरकार ने अभी तक कैदियों को उनके श्रम के लिए मुआवज़ा सुनिश्चित करने के लिए कोई उपाय लागू नहीं किया।

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