भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस ) की धारा 356 द्वारा प्रतिस्थापित मानहानि को माना गया है एक अपराध
आगरा/नई दिल्ली:
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि अब मानहानि के अपराध को गैर-आपराधिक बनाने (de-criminalise) का समय आ गया है।
यह टिप्पणी न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने ऑनलाइन समाचार पोर्टल ‘द वायर’ को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की एक प्रोफेसर द्वारा दायर मानहानि के मामले में जारी समन को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए की।
कानूनी प्रावधान और अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य
भारत उन कुछ लोकतांत्रिक देशों में से एक है जहां मानहानि एक आपराधिक अपराध है, जबकि अधिकांश देशों में इसके लिए केवल नागरिक उपचार (सिविल रेमेडीज ) का प्रावधान है।
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भारत में, भारतीय दंड संहिता (आईपीसी ) की धारा 499 को भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 356 द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है, जो मानहानि को एक अपराध बनाए रखती है। 2016 में, सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न राजनेताओं द्वारा दायर याचिकाओं के बावजूद आपराधिक मानहानि के प्रावधान की वैधता को बरकरार रखा था।
मामले की पृष्ठभूमि:
यह मानहानि का मामला ‘द वायर’ द्वारा 2016 में प्रकाशित एक रिपोर्ट से जुड़ा है, जिसमें कहा गया था कि प्रोफेसर अमिता सिंह जेएनयू के उन शिक्षकों के एक समूह की प्रमुख थीं, जिन्होंने 200 पृष्ठों का एक डोजियर तैयार किया था।
इस डोजियर का शीर्षक ‘जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय: अलगाववाद और आतंकवाद का अड्डा’ था, जिसमें जेएनयू को “संगठित सेक्स रैकेट का अड्डा” बताया गया था। रिपोर्ट में आरोप लगाया गया था कि यह डोजियर जेएनयू प्रशासन को सौंपा गया था।
इसके बाद, प्रोफेसर सिंह ने ‘द वायर’ और उसके रिपोर्टर के खिलाफ आपराधिक मानहानि का मुकदमा दायर किया।
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मजिस्ट्रेट ने 2017 में पोर्टल को समन जारी किया, जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया और नए सिरे से विचार करने को कहा।
इस साल जनवरी में, मजिस्ट्रेट ने फिर से समन जारी किया, जिसे दिल्ली उच्च न्यायालय ने 7 मई को बरकरार रखा, जिसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
‘द वायर’ की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने अदालत की टिप्पणी से सहमति जताई। अदालत ने मामले की सुनवाई करते हुए प्रोफेसर सिंह को नोटिस जारी किया और मामले की अगली सुनवाई के लिए तारीख तय की।
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