उत्तर प्रदेश बार काउंसिल द्वारा सर्वसम्मति से जस्टिस संगीता चंद्रा को इलाहाबाद हाईकोर्ट से दूसरे हाईकोर्ट में ट्रांसफर करने के लिए प्रस्ताव पारित करने के बाद का घटनाक्रम
आगरा / लखनऊ 1 अक्टूबर ।
इलाहाबाद हाईकोर्ट की जस्टिस संगीता चंद्रा ने मामले की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया, जिसमें पिछले सप्ताह उनके नेतृत्व वाली खंडपीठ ने आदेश पारित किया था, जिसमें सीनियर एडवोकेट के खिलाफ आपराधिक अवमानना कार्यवाही करने के लिए मामले को चीफ जस्टिस को संदर्भित किया गया था।
उल्लेखनीय है कि खंडपीठ (जिसमें जस्टिस बृज राज सिंह भी शामिल थे) ने उक्त संदर्भ तब दिया था, जब उसने पाया कि सीनियर एडवोकेट ने अदालत की कार्यवाही के संचालन पर आक्षेप लगाकर और द्वेष के व्यक्तिगत आरोप लगाकर अदालत को बदनाम किया था और उसकी गरिमा को कम किया था।
जब सोमवार मामले की सुनवाई हुई तो जस्टिस चंद्रा ने कहा:
“मेरे सामने नहीं”।
यह घटनाक्रम उत्तर प्रदेश बार काउंसिल द्वारा सर्वसम्मति से जस्टिस संगीता चंद्रा को इलाहाबाद हाईकोर्ट से दूसरे हाईकोर्ट में ट्रांसफर करने के लिए प्रस्ताव पारित करने के एक दिन बाद हुआ।
मामले की पृष्ठभूमि
सीनियर वकील एससी मिश्रा के खिलाफ अवमानना कार्रवाई की सिफारिश करने वाला आदेश तब पारित किया गया, जब खंडपीठ लखनऊ नगर निगम द्वारा जारी किए गए दो आदेशों को चुनौती देने वाली रिट याचिका पर विचार कर रही थी, जिसमें याचिकाकर्ता की निविदा के लिए तकनीकी बोली खारिज कर दी गई।
सीनियर वकील एससी मिश्रा द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि एलएनएन/एलएमसी को उन्हें योग्य मानना चाहिए, जिससे याचिकाकर्ता के लिए वित्तीय बोली खोली जा सके।
25 सितंबर को पारित आदेश में न्यायालय ने पहले के टेंडर नोटिस को रद्द करने से संबंधित रिकॉर्ड तलब किया, जिसमें याचिकाकर्ता को तकनीकी रूप से योग्य पाया गया। साथ ही वर्तमान टेंडर नोटिस, जिसे चुनौती दी गई।
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अब 27 सितंबर को एलएमसी के वकील ने कोर्ट की मांग के अनुसार रिकॉर्ड पेश करने के लिए कुछ और समय मांगा। इसे देखते हुए नगर निगम के अधिकारियों की ओर से किए गए आचरण की आलोचना करते हुए न्यायालय ने मामले को 30 सितंबर को आगे की सुनवाई के लिए स्थगित करने की मांग की।
इस बिंदु पर सीनियर वकील (याचिकाकर्ता की ओर से पेश) ने सुनवाई स्थगित करने पर आपत्ति जताई और जोर देकर कहा कि नगर निगम के रिकॉर्ड को देखे बिना अंतरिम आदेश दिया जाना चाहिए।
उन्होंने मामले की तात्कालिकता पर भी जोर दिया और आरोप लगाया कि प्रतिवादी सफल बोलीदाता को आशय पत्र जारी करना चाहते थे।
उनकी शिकायत को स्वीकार करते हुए न्यायालय ने आदेश में कहा कि पत्र जारी करना लंबित रिट याचिका के परिणाम पर निर्भर करेगा। हालांकि न्यायालय ने अंतरिम आदेश देने के अनुरोध को अस्वीकार करते हुए कहा कि नगर निगम के रिकॉर्ड की समीक्षा करने के बाद ही कोई अंतरिम राहत दी जाएगी।
इस पर सीनियर वकील ‘नाराज’ हो गए और अदालत में चिल्लाने लगे कि मामले का अंतिम रूप से फैसला हो जाएगा। अदालत के आग्रह के बावजूद, उन्होंने मामले की योग्यता के आधार पर बहस करने से इनकार कर दिया। साथ ही कहा कि वह कुछ भी नहीं कहना चाहते, क्योंकि अदालत प्रतिवादियों के पक्ष में आदेश पारित करने के लिए इच्छुक है।
उन्होंने कहा कि अदालत अपनी इच्छानुसार कोई भी आदेश पारित कर सकती है। मामले को खारिज भी कर सकती है। सीनियर एडवोकेट द्वारा दिए गए ऐसे बयानों के जवाब में अदालत ने बताया कि इस तरह का व्यवहार अदालत के अधिकार को कमजोर करता है। अदालती कार्यवाही देखने वाले जूनियर वकीलों के लिए नकारात्मक मिसाल कायम कर सकता है।
अदालत के आदेश के अनुसार जब सीनियर वकील ने उसी तरह से अदालती कार्यवाही के संचालन पर संदेह जताते हुए। द्वेष के व्यक्तिगत आरोप लगाते हुए जारी रखा तो अदालत ने उनके खिलाफ आपराधिक अवमानना कार्यवाही शुरू करने के लिए मामले को चीफ जस्टिस को भेज दिया।
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साभार: लाइव लॉ
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