दिल्ली रेस क्लब (1940) लिमिटेड और अन्य के खिलाफ शिकायत मामले में उत्तर प्रदेश की एक निचली अदालत से पारित समन आदेश को रद्द करने से मना करने पर अप्रैल में पारित इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश को खारिज करते हुए की टिप्पणी
आगरा/नई दिल्ली 24 अगस्त ।
देश की सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि यह बहुत दुखद है कि अदालतें आपराधिक विश्वासघात और धोखाधड़ी के बीच के सूक्ष्म अंतर को नहीं समझ पाई हैं, जबकि दंडात्मक कानून 162 साल से अधिक समय से लागू है।
Also Read – लोक अदालत के लिए मुकदमों को चिन्हित कर अधिक से अधिक वादों के निस्तारण के निर्देश
शीर्ष अदालत ने कहा कि दुर्भाग्यवश, पुलिस के लिए यह एक सामान्य प्रक्रिया बन गई है कि वह बिना किसी समुचित विवेक का इस्तेमाल किए सिर्फ बेईमानी या धोखाधड़ी के आरोप पर नियमित रूप से प्राथमिकी दर्ज कर लेती है।
न्यायमूर्ति जेबी परदीवाला व न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने यह टिप्पणी इस वर्ष अप्रैल में पारित इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश को खारिज करते हुए की। हाईकोर्ट ने दिल्ली रेस क्लब (1940) लिमिटेड और अन्य के खिलाफ शिकायत मामले में उत्तर प्रदेश की एक निचली अदालत से पारित समन आदेश को रद्द करने से मना कर दिया था।
दो न्यायाधीशों की पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा कि
अब समय आ गया है कि देशभर के पुलिस अधिकारियों को कानून का उचित प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वे धोखाधड़ी और आपराधिक विश्वासघात के अपराधों के बीच के सूक्ष्म अंतर को समझ सकें। दोनों अपराध स्वतंत्र और अलग-अलग हैं। दोनों अपराध एक ही तथ्यों के आधार पर एक साथ नहीं हो सकते। वे एक दूसरे के विरोधी हैं।
शीर्ष अदालत ने कहा कि
निजी शिकायतों में विषय वस्तु की जांच करना जजों का कर्तव्य है।
पीठ ने कहा,
निजी शिकायत पर विचार करते समय कानून मजिस्ट्रेट को इसकी विषय-वस्तु की सावधानीपूर्वक जांच करने का कर्तव्य देता है, ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि क्या कथनों के आधार पर धोखाधड़ी या आपराधिक विश्वासघात का अपराध बनता है। भारतीय दंड संहिता 1862 में ब्रिटिश शासन के दौरान उपमहाद्वीप में लागू हुई और लगभग 162 वर्षों तक लागू रही, जब तक कि इसे निरस्त नहीं कर दिया गया। इसकी जगह भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) ने ले ली जो 1 जुलाई, 2024 को लागू हुई।
यह वास्तव में बहुत दुखद है कि इतने वर्षों के बाद भी अदालतें आपराधिक विश्वासघात और धोखाधड़ी के बीच के बारीक अंतर को नहीं समझ पाई हैं।